ब'अद फ़रहाद के फिर कोह-कनी मैं ने की
ब'अद मजनूँ के किया मैं ने बयाबाँ आबाद
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दिल-लगी अपनी तिरे ज़िक्र से किस रात न थी
मर्द-ए-दरवेश हूँ तकिया है तवक्कुल मेरा
न जब तक कोई हम-प्याला हो मैं मय नहीं पीता
वहशी थे बू-ए-गुल की तरह इस जहाँ में हम
मुंतज़िर था वो तो जुस्त-ओ-जू में ये आवारा था
दिल की कुदूरतें अगर इंसाँ से दूर हों
हुबाब-आसा में दम भरता हूँ तेरी आश्नाई का
ठीक आई तन पे अपने क़बा-ए-बरहनगी
सफ़र है शर्त मुसाफ़िर-नवाज़ बहुतेरे
दुनिया ओ आख़िरत में तलबगार हैं तिरे
इंसाफ़ की तराज़ू में तौला अयाँ हुआ