बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का
जो चीरा तो इक क़तरा-ए-ख़ूँ न निकला
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पीरी से मिरा नौ दिगर-हाल हुआ है
रुख़ ओ ज़ुल्फ़ पर जान खोया किया
जब के रुस्वा हुए इंकार है सच बात में क्या
क़ामत तिरी दलील क़यामत की हो गई
दुनिया ओ आख़िरत में तलबगार हैं तिरे
उन्नाब-ए-लब का अपने मज़ा कुछ न पूछिए
क़िस्सा-ए-सिलसिला-ए-ज़ुल्फ़ न कहना बेहतर
बंदिश-ए-अल्फ़ाज़ जड़ने से निगूँ के कम नहीं
सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या
चमन में शब को जो वो शोख़ बे-नक़ाब आया
सब्ज़ा बाला-ए-ज़क़न दुश्मन है ख़ल्क़ुल्लाह का
आफ़त-ए-जाँ हुई उस रू-ए-किताबी की याद