क़ामत तिरी दलील क़यामत की हो गई
काम आफ़्ताब-ए-हश्र का रुख़्सार ने किया
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ऐसी वहशत नहीं दिल को कि सँभल जाऊँगा
इस के कूचे में मसीहा हर सहर जाता रहा
या-अली कह कर बुत-ए-पिंदार तोड़ा चाहिए
शब-ए-वस्ल थी चाँदनी का समाँ था
आशिक़ हूँ मैं नफ़रत है मिरे रंग को रू से
सफ़र है शर्त मुसाफ़िर-नवाज़ बहुतेरे
तिरे अबरू-ए-पेवस्ता का आलम में फ़साना है
बाज़ार-ए-दहर में तिरी मंज़िल कहाँ न थी
जब के रुस्वा हुए इंकार है सच बात में क्या
काट कर पर मुतमइन सय्याद बे-परवा न हो
कुफ़्र ओ इस्लाम की कुछ क़ैद नहीं ऐ 'आतिश'
ताक़-ए-अबरू हैं पसंद-ए-तब्अ इक दिल-ख़्वाह के