तिरे अबरू-ए-पेवस्ता का आलम में फ़साना है
किसी उस्ताद शायर का ये बैत-ए-आशिक़ाना है
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दिल शहीद-ए-रह-ए-दामान न हुआ था सो हुआ
तब्ल-ओ-अलम ही पास हैं अपने न मुल्क-ओ-माल
बुत-ख़ाना तोड़ डालिए मस्जिद को ढाइए
आख़िर-ए-कार चले तीर की रफ़्तार क़दम
आसमान और ज़मीं का है तफ़ावुत हर-चंद
आइना सीना-ए-साहब-नज़राँ है कि जो था
बाज़ार-ए-दहर में तिरी मंज़िल कहाँ न थी
क्या क्या न रंग तेरे तलबगार ला चुके
ग़म नहीं गो ऐ फ़लक रुत्बा है मुझ को ख़ार का
मोहब्बत का तिरी बंदा हर इक को ऐ सनम पाया
मय-कदे में नश्शा की ऐनक दिखाती है मुझे