ठीक आई तन पे अपने क़बा-ए-बरहनगी
बानी लिबास छोटे हुए या बड़े हुए
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बहर-ए-हस्ती सा कोई दरिया-ए-बे-पायाँ नहीं
शब-ए-फ़ुर्क़त में यार-ए-जानी की
कुफ़्र ओ इस्लाम की कुछ क़ैद नहीं ऐ 'आतिश'
हर शब शब-ए-बरात है हर रोज़ रोज़-ए-ईद
कौन से दिन हाथ में आया मिरे दामान-ए-यार
दिल बहुत तंग रहा करता है
जौहर नहीं हमारे हैं सय्याद पर खुले
ज़िंदे वही हैं जो कि हैं तुम पर मरे हुए
चमन में शब को जो वो शोख़ बे-नक़ाब आया
मिरी तरह से मह-ओ-महर भी हैं आवारा
करता है क्या ये मोहतसिब-ए-संग-दिल ग़ज़ब
ग़म नहीं गो ऐ फ़लक रुत्बा है मुझ को ख़ार का