कौन से दिन हाथ में आया मिरे दामान-ए-यार
कब ज़मीन-ओ-आसमाँ का फ़ासला जाता रहा
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मैं उस गुलशन का बुलबुल हूँ बहार आने नहीं पाती
दौलत-ए-हुस्न की भी है क्या लूट
तोड़ कर तार-ए-निगह का सिलसिला जाता रहा
रख के मुँह सो गए हम आतिशीं रुख़्सारों पर
इलाही एक दिल किस किस को दूँ मैं
हसरत-ए-जल्वा-ए-दीदार लिए फिरती है
है जब से दस्त-ए-यार में साग़र शराब का
ऐ फ़लक कुछ तो असर हुस्न-ए-अमल में होता
हाजत नहीं बनाओ की ऐ नाज़नीं तुझे
दुनिया ओ आख़िरत में तलबगार हैं तिरे
मगर उस को फ़रेब-ए-नर्गिस-ए-मस्ताना आता है
फ़र्त-ए-शौक़ उस बुत के कूचे में लगा ले जाएगा