दुनिया ओ आख़िरत में तलबगार हैं तिरे
हासिल तुझे समझते हैं दोनों जहाँ में हम
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इंसाफ़ की तराज़ू में तौला अयाँ हुआ
लगे मुँह भी चिढ़ाने देते देते गालियाँ साहब
किसी ने मोल न पूछा दिल-ए-शिकस्ता का
आसमान और ज़मीं का है तफ़ावुत हर-चंद
उठ गई हैं सामने से कैसी कैसी सूरतें
हाजत नहीं बनाओ की ऐ नाज़नीं तुझे
क़ुदरत-ए-हक़ है सबाहत से तमाशा है वो रुख़
तुर्रा उसे जो हुस्न-ए-दिल-आज़ार ने किया
न गोर-ए-सिकंदर न है क़ब्र-ए-दारा
पयम्बर मैं नहीं आशिक़ हूँ जानी
लिबास-ए-काबा का हासिल किया शरफ़ उस ने
पयाम-बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ