पयाम-बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ
ज़बान-ए-ग़ैर से क्या शरह-ए-आरज़ू करते
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वही चितवन की ख़ूँ-ख़्वारी जो आगे थी सो अब भी है
रुजूअ बंदा की है इस तरह ख़ुदा की तरफ़
इस के कूचे में मसीहा हर सहर जाता रहा
हमारा काबा-ए-मक़्सूद तेरा ताक़-ए-अबरू है
ख़्वाहाँ तिरे हर रंग में ऐ यार हमीं थे
पयम्बर मैं नहीं आशिक़ हूँ जानी
कू-ए-जानाँ में भी अब इस का पता मिलता नहीं
तलब दुनिया को कर के ज़न-मुरीदी हो नहीं सकती
लख़्त-ए-जिगर को क्यूँकर मिज़्गान-ए-तर सँभाले
तार-तार-ए-पैरहन में भर गई है बू-ए-दोस्त
रुख़ ओ ज़ुल्फ़ पर जान खोया किया
पीरी से मिरा नौ दिगर-हाल हुआ है