रुख़ ओ ज़ुल्फ़ पर जान खोया किया
रुख़ ओ ज़ुल्फ़ पर जान खोया किया
अँधेरे उजाले में रोया किया
हमेशा लिखे वस्फ़-ए-दंदान-ए-यार
क़लम अपना मोती पिरोया किया
कहूँ क्या हुई उम्र क्यूँ-कर बसर
मैं जागा किया बख़्त सोया किया
रही सब्ज़ बे-फ़िक्र किश्त-ए-सुख़न
न जोता किया मैं न बोया किया
बरहमन को बातों की हसरत रही
ख़ुदा ने बुतों को न गोया किया
मज़ा ग़म के खाने का जिस को पड़ा
वो अश्कों से हाथ अपने धोया किया
ज़नख़दाँ से 'आतिश' मोहब्बत रही
कुएँ में मुझे दिल डुबोया किया
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