गुल आते हैं हस्ती में अदम से हमा-तन-गोश
बुलबुल का ये नाला नहीं अफ़्साना है उस का
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आबले पावँ के क्या तू ने हमारे तोड़े
दोस्तों से इस क़दर सदमे उठाए जान पर
वो नाज़नीं ये नज़ाकत में कुछ यगाना हुआ
मुंतज़िर था वो तो जुस्त-ओ-जू में ये आवारा था
ये किस रश्क-ए-मसीहा का मकाँ है
पीरी से मिरा नौ दिगर-हाल हुआ है
तिरी ज़ुल्फ़ों ने बल खाया तो होता
सफ़र है शर्त मुसाफ़िर-नवाज़ बहुतेरे
ऐ फ़लक कुछ तो असर हुस्न-ए-अमल में होता
बहर-ए-हस्ती सा कोई दरिया-ए-बे-पायाँ नहीं
शहर में क़ाफ़िया-पैमाई बहुत की 'आतिश'
न गोर-ए-सिकंदर न है क़ब्र-ए-दारा