शहर में क़ाफ़िया-पैमाई बहुत की 'आतिश'
अब इरादा है मिरा बादिया-पैमाई का
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तिरे अबरू-ए-पेवस्ता का आलम में फ़साना है
मर्द-ए-दरवेश हूँ तकिया है तवक्कुल मेरा
रोज़-ए-मौलूद से साथ अपने हुआ ग़म पैदा
हुबाब-आसा में दम भरता हूँ तेरी आश्नाई का
सख़्ती-ए-राह खींचिए मंज़िल के शौक़ में
हवा-ए-दौर-ए-मय-ए-ख़ुश-गवार राह में है
अजब तेरी है ऐ महबूब सूरत
ग़म नहीं गो ऐ फ़लक रुत्बा है मुझ को ख़ार का
बर्क़ को उस पर अबस गिरने की हैं तय्यारियाँ
दुनिया ओ आख़िरत में तलबगार हैं तिरे
ज़ियारत होगी काबे की यही ताबीर है इस की
आशिक़ हूँ मैं नफ़रत है मिरे रंग को रू से