अजब तेरी है ऐ महबूब सूरत
नज़र से गिर गए सब ख़ूबसूरत
Jaun Eliya
Allama Iqbal
Habib Jalib
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Gulzar
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आप की नाज़ुक कमर पर बोझ पड़ता है बहुत
हर शब शब-ए-बरात है हर रोज़ रोज़-ए-ईद
मैं वो ग़म-दोस्त हूँ जब कोई ताज़ा ग़म हुआ पैदा
काबा ओ दैर में है किस के लिए दिल जाता
कोई अच्छा नहीं होता है बरी चालों से
न जब तक कोई हम-प्याला हो मैं मय नहीं पीता
बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का
ईद-ए-नौ-रोज़ दिल अपना भी कभी ख़ुश करते
वहशी थे बू-ए-गुल की तरह इस जहाँ में हम
ऐसी ऊँची भी तो दीवार नहीं घर की तिरे
कुफ़्र ओ इस्लाम की कुछ क़ैद नहीं ऐ 'आतिश'
लख़्त-ए-जिगर को क्यूँकर मिज़्गान-ए-तर सँभाले