ऐसी ऊँची भी तो दीवार नहीं घर की तिरे
रात अँधेरी कोई आवेगी न बरसात में क्या
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हाजत नहीं बनाओ की ऐ नाज़नीं तुझे
करता है क्या ये मोहतसिब-ए-संग-दिल ग़ज़ब
काट कर पर मुतमइन सय्याद बे-परवा न हो
बर्क़ को उस पर अबस गिरने की हैं तय्यारियाँ
काम हिम्मत से जवाँ मर्द अगर लेता है
आतिश-ए-मस्त जो मिल जाए तो पूछूँ उस से
किसी ने मोल न पूछा दिल-ए-शिकस्ता का
पीरी से मिरा नौ दिगर-हाल हुआ है
शब-ए-फ़ुर्क़त में यार-ए-जानी की
क्या क्या न रंग तेरे तलबगार ला चुके
फ़स्ल-ए-बहार आई पियो सूफ़ियो शराब
सख़्ती-ए-राह खींचिए मंज़िल के शौक़ में