ऐ सनम जिस ने तुझे चाँद सी सूरत दी है
उसी अल्लाह ने मुझ को भी मोहब्बत दी है
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मैं वो ग़म-दोस्त हूँ जब कोई ताज़ा ग़म हुआ पैदा
लिबास-ए-यार को मैं पारा-पारा क्या करता
शब-ए-वस्ल थी चाँदनी का समाँ था
हमेशा मैं ने गरेबाँ को चाक चाक किया
फ़स्ल-ए-बहार आई पियो सूफ़ियो शराब
चमन में रहने दे कौन आशियाँ नहीं मा'लूम
ऐ फ़लक कुछ तो असर हुस्न-ए-अमल में होता
ये आरज़ू थी तुझे गुल के रू-ब-रू करते
जो देखते तिरी ज़ंजीर-ए-ज़ुल्फ़ का आलम
बरहमन खोले हीगा बुत-कदा का दरवाज़ा
वही पस्ती ओ बुलंदी है ज़मीं की आतिश
तोड़ कर तार-ए-निगह का सिलसिला जाता रहा