वही पस्ती ओ बुलंदी है ज़मीं की आतिश
वही गर्दिश में शब ओ रोज़ हैं अफ़्लाक हनूज़
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जोश-ओ-ख़रोश पर है बहार-ए-चमन हनूज़
ऐ फ़लक कुछ तो असर हुस्न-ए-अमल में होता
शहर में क़ाफ़िया-पैमाई बहुत की 'आतिश'
वही चितवन की ख़ूँ-ख़्वारी जो आगे थी सो अब भी है
ये दिल लगाने में मैं ने मज़ा उठाया है
पीरी से मिरा नौ दिगर-हाल हुआ है
पयम्बर मैं नहीं आशिक़ हूँ जानी
जो आला-ज़र्फ़ होते हैं हमेशा झुक के मिलते हैं
दोस्तों से इस क़दर सदमे उठाए जान पर
आइना-ख़ाना करेंगे दिल-ए-नाकाम को हम
आइना सीना-ए-साहब-नज़राँ है कि जो था
पयाम-बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ