ये दिल लगाने में मैं ने मज़ा उठाया है
मिला न दोस्त तो दुश्मन से इत्तिहाद किया
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शब-ए-फ़ुर्क़त में यार-ए-जानी की
दुनिया ओ आख़िरत में तलबगार हैं तिरे
पीरी से मिरा नौ दिगर-हाल हुआ है
आइना सीना-ए-साहब-नज़राँ है कि जो था
मस्त हाथी है तिरी चश्म-ए-सियह-मस्त ऐ यार
वहशत-ए-दिल ने किया है वो बयाबाँ पैदा
ये किस रश्क-ए-मसीहा का मकाँ है
आज तक अपनी जगह दिल में नहीं अपने हुई
वहशी थे बू-ए-गुल की तरह इस जहाँ में हम
जाँ-बख़्श लब के इश्क़ में ईज़ा उठाइए
काबा ओ दैर में है किस के लिए दिल जाता