वहशत-ए-दिल ने किया है वो बयाबाँ पैदा
सैकड़ों कोस नहीं सूरत-ए-इंसाँ पैदा
Javed Akhtar
Allama Iqbal
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ब'अद फ़रहाद के फिर कोह-कनी मैं ने की
आइना-ख़ाना करेंगे दिल-ए-नाकाम को हम
ख़ार मतलूब जो होवे तो गुलिस्ताँ माँगूँ
किसी ने मोल न पूछा दिल-ए-शिकस्ता का
ऐसी वहशत नहीं दिल को कि सँभल जाऊँगा
दोस्तों से इस क़दर सदमे उठाए जान पर
ये आरज़ू थी तुझे गुल के रू-ब-रू करते
लिबास-ए-काबा का हासिल किया शरफ़ उस ने
ख़ुदा दराज़ करे उम्र चर्ख़-ए-नीली की
मय-ए-गुल-रंग से लबरेज़ रहें जाम सफ़ेद
बुत-ख़ाना तोड़ डालिए मस्जिद को ढाइए
ऐ जुनूँ होते हैं सहरा पर उतारे शहर से