ये आरज़ू थी तुझे गुल के रू-ब-रू करते
हम और बुलबुल-ए-बेताब गुफ़्तुगू करते
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आबले पावँ के क्या तू ने हमारे तोड़े
दहन पर हैं उन के गुमाँ कैसे कैसे
सूरत से इस की बेहतर सूरत नहीं है कोई
लख़्त-ए-जिगर को क्यूँकर मिज़्गान-ए-तर सँभाले
इंसाफ़ की तराज़ू में तौला अयाँ हुआ
बला-ए-जाँ मुझे हर एक ख़ुश-जमाल हुआ
कूचा-ए-यार में हो रौशनी अपने दम की
पयाम-बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ
आप की नाज़ुक कमर पर बोझ पड़ता है बहुत
ग़म नहीं गो ऐ फ़लक रुत्बा है मुझ को ख़ार का
लिबास-ए-काबा का हासिल किया शरफ़ उस ने
जौहर नहीं हमारे हैं सय्याद पर खुले