कूचा-ए-यार में हो रौशनी अपने दम की
काबा ओ दैर करें गब्र ओ मुसलमाँ आबाद
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रोज़-ए-मौलूद से साथ अपने हुआ ग़म पैदा
सर शम्अ साँ कटाइए पर दम न मारिए
इस के कूचे में मसीहा हर सहर जाता रहा
मेहंदी लगाने का जो ख़याल आया आप को
क़ुदरत-ए-हक़ है सबाहत से तमाशा है वो रुख़
ना-फ़हमी अपनी पर्दा है दीदार के लिए
मोहब्बत का तिरी बंदा हर इक को ऐ सनम पाया
इस शश-जिहत में ख़ूब तिरी जुस्तुजू करें
वही पस्ती ओ बुलंदी है ज़मीं की आतिश
फ़स्ल-ए-बहार आई पियो सूफ़ियो शराब
न जब तक कोई हम-प्याला हो मैं मय नहीं पीता
उन्नाब-ए-लब का अपने मज़ा कुछ न पूछिए