कोई तो दोश से बार-ए-सफ़र उतारेगा
हज़ारों राहज़न उम्मीद-वार राह में है
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जौहर नहीं हमारे हैं सय्याद पर खुले
नाज़-ओ-अदा है तुझ से दिल-आराम के लिए
लिबास-ए-काबा का हासिल किया शरफ़ उस ने
हसरत-ए-जल्वा-ए-दीदार लिए फिरती है
बुलबुल गुलों से देख के तुझ को बिगड़ गया
तिरे अबरू-ए-पेवस्ता का आलम में फ़साना है
ठीक आई तन पे अपने क़बा-ए-बरहनगी
दुनिया ओ आख़िरत में तलबगार हैं तिरे
हाजत नहीं बनाओ की ऐ नाज़नीं तुझे
किसी ने मोल न पूछा दिल-ए-शिकस्ता का
ख़ुदा दराज़ करे उम्र चर्ख़-ए-नीली की
वही पस्ती ओ बुलंदी है ज़मीं की आतिश