मेहंदी लगाने का जो ख़याल आया आप को
सूखे हुए दरख़्त हिना के हरे हुए
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दहन पर हैं उन के गुमाँ कैसे कैसे
मुंतज़िर था वो तो जुस्त-ओ-जू में ये आवारा था
ये किस रश्क-ए-मसीहा का मकाँ है
तार-तार-ए-पैरहन में भर गई है बू-ए-दोस्त
ग़ैरत-ए-महर रश्क-ए-माह हो तुम
मय-कदे में नश्शा की ऐनक दिखाती है मुझे
आप की नाज़ुक कमर पर बोझ पड़ता है बहुत
काबा ओ दैर में है किस के लिए दिल जाता
वहशत-ए-दिल ने किया है वो बयाबाँ पैदा
आए भी लोग बैठे भी उठ भी खड़े हुए
आदमी क्या वो न समझे जो सुख़न की क़द्र को
सिवाए रंज कुछ हासिल नहीं है इस ख़राबे में