आए भी लोग बैठे भी उठ भी खड़े हुए
मैं जा ही ढूँडता तिरी महफ़िल में रह गया
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ये आरज़ू थी तुझे गुल के रू-ब-रू करते
तिरे अबरू-ए-पेवस्ता का आलम में फ़साना है
सिवाए रंज कुछ हासिल नहीं है इस ख़राबे में
अमरद-परस्त है तो गुलिस्ताँ की सैर कर
पयाम-बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ
काबा ओ दैर में है किस के लिए दिल जाता
काट कर पर मुतमइन सय्याद बे-परवा न हो
सफ़र है शर्त मुसाफ़िर-नवाज़ बहुतेरे
बुलबुल गुलों से देख के तुझ को बिगड़ गया
तलब दुनिया को कर के ज़न-मुरीदी हो नहीं सकती
हमारा काबा-ए-मक़्सूद तेरा ताक़-ए-अबरू है
हर शब शब-ए-बरात है हर रोज़ रोज़-ए-ईद