आफ़त-ए-जाँ हुई उस रू-ए-किताबी की याद
रास आया न मुझे हाफ़िज़-ए-क़ुरआँ होना
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वो नाज़नीं ये नज़ाकत में कुछ यगाना हुआ
गुल आते हैं हस्ती में अदम से हमा-तन-गोश
ख़्वाहाँ तिरे हर रंग में ऐ यार हमीं थे
ठीक आई तन पे अपने क़बा-ए-बरहनगी
ब'अद फ़रहाद के फिर कोह-कनी मैं ने की
ऐ फ़लक कुछ तो असर हुस्न-ए-अमल में होता
यार को मैं ने मुझे यार ने सोने न दिया
मैं उस गुलशन का बुलबुल हूँ बहार आने नहीं पाती
बरहमन खोले हीगा बुत-कदा का दरवाज़ा
वही पस्ती ओ बुलंदी है ज़मीं की आतिश
ख़ार मतलूब जो होवे तो गुलिस्ताँ माँगूँ
इलाही एक दिल किस किस को दूँ मैं