इलाही एक दिल किस किस को दूँ मैं
हज़ारों बुत हैं याँ हिन्दोस्तान है
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इस शश-जिहत में ख़ूब तिरी जुस्तुजू करें
पा-ब-गिल बे-ख़ुदी-ए-शौक़ से मैं रहता था
हुबाब-आसा में दम भरता हूँ तेरी आश्नाई का
आतिश-ए-मस्त जो मिल जाए तो पूछूँ उस से
तोड़ कर तार-ए-निगह का सिलसिला जाता रहा
नाज़-ओ-अदा है तुझ से दिल-आराम के लिए
हमेशा मैं ने गरेबाँ को चाक चाक किया
मुंतज़िर था वो तो जुस्त-ओ-जू में ये आवारा था
वहशत-ए-दिल ने किया है वो बयाबाँ पैदा
मेहंदी लगाने का जो ख़याल आया आप को
क्या क्या न रंग तेरे तलबगार ला चुके
मय-ए-गुल-रंग से लबरेज़ रहें जाम सफ़ेद