बरहमन खोले हीगा बुत-कदा का दरवाज़ा
बंद रहने का नहीं कार-ए-ख़ुदा-साज़ अपना
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Faiz Ahmad Faiz
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बस्तियाँ ही बस्तियाँ हैं गुम्बद-ए-अफ़्लाक में
बे-गिनती बोसे लेंगे रुख़-ए-दिल-पसंद के
क़ैद-ए-मज़हब की गिरफ़्तारी से छुट जाता है
गुल आते हैं हस्ती में अदम से हमा-तन-गोश
न जब तक कोई हम-प्याला हो मैं मय नहीं पीता
ऐसी वहशत नहीं दिल को कि सँभल जाऊँगा
ज़िंदे वही हैं जो कि हैं तुम पर मरे हुए
दिल शहीद-ए-रह-ए-दामान न हुआ था सो हुआ
सूरत से इस की बेहतर सूरत नहीं है कोई
सर शम्अ साँ कटाइए पर दम न मारिए
ये आरज़ू थी तुझे गुल के रू-ब-रू करते