बंदिश-ए-अल्फ़ाज़ जड़ने से निगूँ के कम नहीं
शाएरी भी काम है 'आतिश' मुरस्सा-साज़ का
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क़िस्सा-ए-सिलसिला-ए-ज़ुल्फ़ न कहना बेहतर
हुस्न-ए-परी इक जल्वा-ए-मस्ताना है उस का
हंगाम-ए-नज़'अ महव हूँ तेरे ख़याल का
दुनिया ओ आख़िरत में तलबगार हैं तिरे
दीवानगी ने क्या क्या आलम दिखा दिए हैं
बर्क़ को उस पर अबस गिरने की हैं तय्यारियाँ
तेरी जो याद ऐ दिल-ख़्वाह भूला
इंसाफ़ की तराज़ू में तौला अयाँ हुआ
क़ैद-ए-मज़हब की गिरफ़्तारी से छुट जाता है
हुबाब-आसा में दम भरता हूँ तेरी आश्नाई का
सर काट के कर दीजिए क़ातिल के हवाले
दोस्तों से इस क़दर सदमे उठाए जान पर