बस्तियाँ ही बस्तियाँ हैं गुम्बद-ए-अफ़्लाक में
सैकड़ों फ़रसंग मजनूँ से बयाबाँ रह गया
Jaun Eliya
Gulzar
Faiz Ahmad Faiz
Anwar Masood
Allama Iqbal
Habib Jalib
Javed Akhtar
Wasi Shah
Parveen Shakir
Mohsin Naqvi
Mir Taqi Mir
Ahmad Faraz
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मर्द-ए-दरवेश हूँ तकिया है तवक्कुल मेरा
सर काट के कर दीजिए क़ातिल के हवाले
तलब दुनिया को कर के ज़न-मुरीदी हो नहीं सकती
सुन तो सही जहाँ में है तेरा अफ़्साना क्या
किसी की महरम-ए-आब-ए-रवाँ की याद आई
काम हिम्मत से जवाँ मर्द अगर लेता है
जो आला-ज़र्फ़ होते हैं हमेशा झुक के मिलते हैं
न गोर-ए-सिकंदर न है क़ब्र-ए-दारा
रुख़ ओ ज़ुल्फ़ पर जान खोया किया
आए भी लोग बैठे भी उठ भी खड़े हुए
न पूछ हाल मिरा चोब-ए-ख़ुश्क-ए-सहरा हूँ
मस्त हाथी है तिरी चश्म-ए-सियह-मस्त ऐ यार