बयाँ ख़्वाब की तरह जो कर रहा है
ये क़िस्सा है जब का कि 'आतिश' जवाँ था
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आसमान और ज़मीं का है तफ़ावुत हर-चंद
आशिक़ हूँ मैं नफ़रत है मिरे रंग को रू से
यार को मैं ने मुझे यार ने सोने न दिया
लिबास-ए-काबा का हासिल किया शरफ़ उस ने
नाज़-ओ-अदा है तुझ से दिल-आराम के लिए
न पाक होगा कभी हुस्न ओ इश्क़ का झगड़ा
हर शब शब-ए-बरात है हर रोज़ रोज़-ए-ईद
मैं उस गुलशन का बुलबुल हूँ बहार आने नहीं पाती
चमन में रहने दे कौन आशियाँ नहीं मा'लूम
ताज़ा हो दिमाग़ अपना तमन्ना है तो ये है
रफ़्तगाँ का भी ख़याल ऐ अहल-ए-आलम कीजिए