आसमान और ज़मीं का है तफ़ावुत हर-चंद
ऐ सनम दूर ही से चाँद सा मुखड़ा दिखला
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सब्ज़ा बाला-ए-ज़क़न दुश्मन है ख़ल्क़ुल्लाह का
ठीक आई तन पे अपने क़बा-ए-बरहनगी
आप की नाज़ुक कमर पर बोझ पड़ता है बहुत
आसार-ए-इश्क़ आँखों से होने लगे अयाँ
ऐ सनम जिस ने तुझे चाँद सी सूरत दी है
हंगाम-ए-नज़'अ महव हूँ तेरे ख़याल का
कोई तो दोश से बार-ए-सफ़र उतारेगा
ब'अद फ़रहाद के फिर कोह-कनी मैं ने की
हाजत नहीं बनाओ की ऐ नाज़नीं तुझे
सूरत से इस की बेहतर सूरत नहीं है कोई
जो देखते तिरी ज़ंजीर-ए-ज़ुल्फ़ का आलम
फ़र्त-ए-शौक़ उस बुत के कूचे में लगा ले जाएगा