कुछ नज़र आता नहीं उस के तसव्वुर के सिवा
हसरत-ए-दीदार ने आँखों को अंधा कर दिया
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जब के रुस्वा हुए इंकार है सच बात में क्या
सर काट के कर दीजिए क़ातिल के हवाले
हर शब शब-ए-बरात है हर रोज़ रोज़-ए-ईद
आशिक़ हूँ मैं नफ़रत है मिरे रंग को रू से
भरा है शीशा-ए-दिल को नई मोहब्बत से
आसमान और ज़मीं का है तफ़ावुत हर-चंद
आइना-ख़ाना करेंगे दिल-ए-नाकाम को हम
रोज़-ए-मौलूद से साथ अपने हुआ ग़म पैदा
वो नाज़नीं ये नज़ाकत में कुछ यगाना हुआ
बाज़ार-ए-दहर में तिरी मंज़िल कहाँ न थी
क़ामत तिरी दलील क़यामत की हो गई
लिबास-ए-काबा का हासिल किया शरफ़ उस ने