भरा है शीशा-ए-दिल को नई मोहब्बत से
ख़ुदा का घर था जहाँ वाँ शराब-ख़ाना हुआ
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इंसाफ़ की तराज़ू में तौला अयाँ हुआ
या-अली कह कर बुत-ए-पिंदार तोड़ा चाहिए
बर्क़ को उस पर अबस गिरने की हैं तय्यारियाँ
वहशी थे बू-ए-गुल की तरह इस जहाँ में हम
जो देखते तिरी ज़ंजीर-ए-ज़ुल्फ़ का आलम
दिल शहीद-ए-रह-ए-दामान न हुआ था सो हुआ
जब के रुस्वा हुए इंकार है सच बात में क्या
लिबास-ए-यार को मैं पारा-पारा क्या करता
फ़स्ल-ए-बहार आई पियो सूफ़ियो शराब
ऐ जुनूँ होते हैं सहरा पर उतारे शहर से
तार-तार-ए-पैरहन में भर गई है बू-ए-दोस्त