बुत-ख़ाना तोड़ डालिए मस्जिद को ढाइए
दिल को न तोड़िए ये ख़ुदा का मक़ाम है
Rahat Indori
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हुस्न-ए-परी इक जल्वा-ए-मस्ताना है उस का
गुल आते हैं हस्ती में अदम से हमा-तन-गोश
आदमी क्या वो न समझे जो सुख़न की क़द्र को
पयम्बर मैं नहीं आशिक़ हूँ जानी
रख के मुँह सो गए हम आतिशीं रुख़्सारों पर
आइना सीना-ए-साहब-नज़राँ है कि जो था
दिल की कुदूरतें अगर इंसाँ से दूर हों
बरहमन खोले हीगा बुत-कदा का दरवाज़ा
तुर्रा उसे जो हुस्न-ए-दिल-आज़ार ने किया
कू-ए-जानाँ में भी अब इस का पता मिलता नहीं
ये आरज़ू थी तुझे गुल के रू-ब-रू करते
वहशत-ए-दिल ने किया है वो बयाबाँ पैदा