सख़्ती-ए-राह खींचिए मंज़िल के शौक़ में
आराम की तलाश में ईज़ा उठाइए
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भरा है शीशा-ए-दिल को नई मोहब्बत से
अजब तेरी है ऐ महबूब सूरत
सफ़र है शर्त मुसाफ़िर-नवाज़ बहुतेरे
शब-ए-वस्ल थी चाँदनी का समाँ था
न पूछ हाल मिरा चोब-ए-ख़ुश्क-ए-सहरा हूँ
कोई बुत-ख़ाने को जाता है कोई काबे को
ताज़ा हो दिमाग़ अपना तमन्ना है तो ये है
किसी की महरम-ए-आब-ए-रवाँ की याद आई
दीवानगी ने क्या क्या आलम दिखा दिए हैं
ऐ फ़लक कुछ तो असर हुस्न-ए-अमल में होता
क़ामत तिरी दलील क़यामत की हो गई
कुफ़्र ओ इस्लाम की कुछ क़ैद नहीं ऐ 'आतिश'