पयाम्बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ
ज़बान-ए-ग़ैर से क्या शरह-ए-आरज़ू करते
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तेरी जो याद ऐ दिल-ख़्वाह भूला
बाज़ार-ए-दहर में तिरी मंज़िल कहाँ न थी
फ़र्त-ए-शौक़ उस बुत के कूचे में लगा ले जाएगा
लख़्त-ए-जिगर को क्यूँकर मिज़्गान-ए-तर सँभाले
ब'अद फ़रहाद के फिर कोह-कनी मैं ने की
ऐसी ऊँची भी तो दीवार नहीं घर की तिरे
हंगाम-ए-नज़'अ महव हूँ तेरे ख़याल का
हुबाब-आसा में दम भरता हूँ तेरी आश्नाई का
आख़िर-ए-कार चले तीर की रफ़्तार क़दम
ज़िंदे वही हैं जो कि हैं तुम पर मरे हुए
बरहमन खोले हीगा बुत-कदा का दरवाज़ा
हर शब शब-ए-बरात है हर रोज़ रोज़-ए-ईद