सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या

सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या

कहती है तुझ को ख़ल्क़-ए-ख़ुदा ग़ाएबाना क्या

क्या क्या उलझता है तिरी ज़ुल्फ़ों के तार से

बख़िया-तलब है सीना-ए-सद-चाक शाना क्या

ज़ेर-ए-ज़मीं से आता है जो गुल सो ज़र-ब-कफ़

क़ारूँ ने रास्ते में लुटाया ख़ज़ाना क्या

उड़ता है शौक़-ए-राहत-ए-मंज़िल से अस्प-ए-उम्र

महमेज़ कहते हैंगे किसे ताज़ियाना क्या

ज़ीना सबा का ढूँडती है अपनी मुश्त-ए-ख़ाक

बाम-ए-बुलंद यार का है आस्ताना क्या

चारों तरफ़ से सूरत-ए-जानाँ हो जल्वा-गर

दिल साफ़ हो तिरा तो है आईना-ख़ाना क्या

सय्याद असीर-ए-दाम-ए-रग-ए-गुल है अंदलीब

दिखला रहा है छुप के उसे दाम-ओ-दाना क्या

तब्ल-ओ-अलम ही पास है अपने न मुल्क ओ माल

हम से ख़िलाफ़ हो के करेगा ज़माना क्या

आती है किस तरह से मिरे क़ब्ज़-ए-रूह को

देखूँ तो मौत ढूँड रही है बहाना क्या

होता है ज़र्द सुन के जो नामर्द मुद्दई

रुस्तम की दास्ताँ है हमारा फ़साना क्या

तिरछी निगह से ताइर-ए-दिल हो चुका शिकार

जब तीर कज पड़े तो उड़ेगा निशाना क्या

सय्याद-ए-गुल-एज़ार दिखाता है सैर-ए-बाग़

बुलबुल क़फ़स में याद करे आशियाना क्या

बेताब है कमाल हमारा दिल-ए-हज़ीं

मेहमाँ सरा-ए-जिस्म का होगा रवाना क्या

यूँ मुद्दई हसद से न दे दाद तो न दे

'आतिश' ग़ज़ल ये तू ने कही आशिक़ाना क्या

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