मसनद-ए-शाही की हसरत हम फ़क़ीरों को नहीं
फ़र्श है घर में हमारे चादर-ए-महताब का
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आदमी क्या वो न समझे जो सुख़न की क़द्र को
रोज़-ए-मौलूद से साथ अपने हुआ ग़म पैदा
तिरी ज़ुल्फ़ों ने बल खाया तो होता
हवा-ए-दौर-ए-मय-ए-ख़ुश-गवार राह में है
हुस्न किस रोज़ हम से साफ़ हुआ
क़िस्सा-ए-सिलसिला-ए-ज़ुल्फ़ न कहना बेहतर
ऐ जुनूँ होते हैं सहरा पर उतारे शहर से
ये किस रश्क-ए-मसीहा का मकाँ है
गुल आते हैं हस्ती में अदम से हमा-तन-गोश
इस के कूचे में मसीहा हर सहर जाता रहा
बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का
हसरत-ए-जल्वा-ए-दीदार लिए फिरती है