मुझ से ये प्यास का सहरा नहीं देखा जाता
रोज़ अब ख़्वाब में दरिया नहीं देखा जाता
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ये जफ़ाओं की सज़ा है कि तमाशाई है तू
तू हँसी ले के मिरी आँख को आँसू दे दे
मक़ाम-ए-ज़ब्त ग़म-ए-इश्क़ में वो पैदा कर
आज का ख़त ही उसे भेजा है कोरा लेकिन
मआल-ए-दिल के लिए आज यूँ ख़ुदी तरसे
एक इंसान हूँ इंसाँ का परस्तार हूँ मैं
ये बुज़ुर्गों की रवा-दारी के पज़-मुर्दा गुलाब
गिर न जाए तिरे मेयार से अंदाज़-ए-हुरूफ़
तपते सहराओं की सौग़ात लिए बैठा है
चाहे कुछ हो ज़ेर-ए-एहसाँ अपनी नादारी न रख
पोशीदा अजब ज़ीस्त का इक राज़ है मुझ में