गिर न जाए तिरे मेयार से अंदाज़-ए-हुरूफ़
यूँ कभी नाम भी तेरा नहीं लिख्खा मैं ने
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ये बुज़ुर्गों की रवा-दारी के पज़-मुर्दा गुलाब
एक इंसान हूँ इंसाँ का परस्तार हूँ मैं
मआल-ए-दिल के लिए आज यूँ ख़ुदी तरसे
तपते सहराओं की सौग़ात लिए बैठा है
मक़ाम-ए-ज़ब्त ग़म-ए-इश्क़ में वो पैदा कर
मुझ से ये प्यास का सहरा नहीं देखा जाता
पोशीदा अजब ज़ीस्त का इक राज़ है मुझ में
चाहे कुछ हो ज़ेर-ए-एहसाँ अपनी नादारी न रख
ये जफ़ाओं की सज़ा है कि तमाशाई है तू
अपनी तक़दीर का शिकवा नहीं लिख्खा मैं ने
तू हँसी ले के मिरी आँख को आँसू दे दे
आज का ख़त ही उसे भेजा है कोरा लेकिन