बंद-ए-क़बा पे हाथ है शरमाए जाते हैं
कमसिन हैं ज़िक्र-ए-वस्ल से घबराए जाते हैं
Faiz Ahmad Faiz
Gulzar
Habib Jalib
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खुली जो आँख मिरी सामना क़ज़ा से हुआ
देखा बग़ौर ऐब से ख़ाली नहीं कोई
चार दिन की बहार है सारी
क्या जानें उन की चाल में एजाज़ है कि सेहर
बहार आई है सदमे से हमारा हाल अबतर है
क्यूँ न का'बे को कहूँ अल्लाह का और बुत का घर
दुश्मन हैं वो भी जान के जो हैं हमारे लोग
की किसी पर न जफ़ा मेरे बा'द
ऐ यास जो तू दिल में आई सब कुछ हुआ पर कुछ भी न हुआ
ख़ूब मिल कर गले से रो लेना
यक-ब-यक तर्क न करना था मोहब्बत मुझ से
ब-ख़ुदा सज्दे करेगा वो बिठा कर बुत को