मैं टूटने देता नहीं रंगों का तसलसुल
ज़ख़्मों को हरा करता हूँ भर जाने के डर से
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कमाँ उठाओ कि हैं सामने निशाने बहुत
भटक रहा हूँ मैं इस दश्त-ए-संग में कब से
ख़ुद पर कोई तूफ़ान गुज़र जाने के डर से
देखूँ वो करती है अब के अलम-आराई कि मैं
अजीब हाल है सहरा-नशीं हैं घर वाले
शुआ-ए-ज़र न मिली रंग-ए-शाइराना मिला
इक क़िस्सा-ए-तवील है अफ़्साना दश्त का
जो नक़्श-ए-बर्ग-ए-करम डाल डाल है उस का