शहर की भीड़ में शामिल है अकेला-पन भी
आज हर ज़ेहन है तन्हाई का मारा देखो
Rahat Indori
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आइनों से पहले भी रस्म-ए-ख़ुद-नुमाई थी
कोई ग़मगीं कोई ख़ुश हो कर सदा देता रहा
लोग सुब्ह ओ शाम की नैरंगियाँ देखा किए
माँगो समुंदरों से न साहिल की भीक तुम
बीते हुए लम्हों के जो गिरवीदा रहे हैं
अहल-ए-हवस के हाथों न ये कारोबार हो
हर ज़ख़्म-ए-दिल से अंजुमन-आराई माँग लो
आइने से न डरो अपना सरापा देखो
इश्क़ को पास-ए-वफ़ा आज भी करते देखा
मौसम का ज़ुल्म सहते हैं किस ख़ामुशी के साथ
हम को इस की क्या ख़बर गुलशन का गुलशन जल गया