इस अँधेरे में जब कोई भी न था
मुझ से गुम हो गया ख़ुदा मुझ में
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दिल कोई आईना नहीं टूट के रह गया तो फिर
वो बहुत दूर है मगर मिरे पास
दिल की इक एक ख़राबी का सबब जानते हैं
इस क़दर मत उदास हो जैसे
कहानियों ने मिरी आदतें बिगाड़ी थीं
मतला ग़ज़ल का ग़ैर ज़रूरी क्या क्यूँ कब का हिस्सा है
वो गुल वो ख़्वाब-शार भी नहीं रहा
धूल उड़ती है तो याद आता है कुछ
मौत की पहली अलामत साहिब
ख़ेमगी-ए-शब है तिश्नगी दिन है
ख़ुद-कुशी भी नहीं मिरे बस में
हाँ ऐ गुबार-ए-आश्ना मैं भी था हम-सफ़र तिरा