ख़ुद-कुशी भी नहीं मिरे बस में
लोग बस यूँही मुझ से डरते हैं
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फूल है जो किताब में अस्ल है कि ख़्वाब है
मौत उकता चुकी रीहरसल में
देखा नहीं चाँद ने पलट कर
गुल-ए-सुख़न से अँधेरों में ताब-कारी कर
दिल की इक एक ख़राबी का सबब जानते हैं
वो गुल वो ख़्वाब-शार भी नहीं रहा
करते फिरते हैं ग़ज़ालाँ तिरा चर्चा साहब
तमाम दोस्त अलाव के गिर्द जम्अ थे और
पर नहीं होते ख़यालों के तो फिर
वो मुझे देख कर ख़मोश रहा
मैं कुछ दिनों में उसे छोड़ जाने वाला था
यहाँ से चारों तरफ़ रास्ते निकलते हैं