मौत उकता चुकी रीहरसल में
रोज़ दो चार शख़्स मरते हैं
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इक ख़ौफ़-ज़दा सा शख़्स घर तक
वो शहर इत्तिफ़ाक़ से नहीं मिला
फूल है जो किताब में अस्ल है कि ख़्वाब है
दिल की इक एक ख़राबी का सबब जानते हैं
करते फिरते हैं ग़ज़ालाँ तिरा चर्चा साहब
तमाम दोस्त अलाव के गिर्द जम्अ थे और
किसी के हाथ कहाँ ये ख़ज़ाना आता है
तिरी गली से गुज़रने को सर झुकाए हुए
मैं उसे सोचता रहा या'नी
वो गुल वो ख़्वाब-शार भी नहीं रहा
किधर गया वो कूज़ा-गर ख़बर नहीं
दिल कोई आईना नहीं टूट के रह गया तो फिर