मिरे सवाल वही टूट-फूट की ज़द में
जवाब उन के वही हैं बने-बनाए हुए
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दिल में है इत्तिफ़ाक़ से दश्त भी घर के साथ साथ
वही न हो कि ये सब लोग साँस लेने लगें
वो गुल वो ख़्वाब-शार भी नहीं रहा
देख न इस तरह गुज़ार अर्सा-ए-चश्म से मुझे
ख़मोश रह के ज़वाल-ए-सुख़न का ग़म किए जाएँ
धूल उड़ती है तो याद आता है कुछ
अब मसाफ़त में तो आराम नहीं आ सकता
वो बहुत दूर है मगर मिरे पास
इस से फूलों वाले भी आजिज़ आ गए हैं
ख़ुद-कुशी भी नहीं मिरे बस में
टूट सकता है छलक सकता है छिन सकता है
हाँ ऐ गुबार-ए-आश्ना मैं भी था हम-सफ़र तिरा