इक ख़ौफ़-ज़दा सा शख़्स घर तक
पहुँचा कई रास्तों में बट कर
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वो गुल वो ख़्वाब-शार भी नहीं रहा
करते फिरते हैं ग़ज़ालाँ तिरा चर्चा साहब
ये किरन कहीं मिरे दिल में आग लगा न दे
मिरे क़रीब ही महताब देख सकता था
वो मुझे देख कर ख़मोश रहा
ख़मोश रह के ज़वाल-ए-सुख़न का ग़म किए जाएँ
इस से फूलों वाले भी आजिज़ आ गए हैं
टूट सकता है छलक सकता है छिन सकता है
आज तो जैसे दिन के साथ दिल भी ग़ुरूब हो गया
दिल में है इत्तिफ़ाक़ से दश्त भी घर के साथ साथ
यहाँ से चारों तरफ़ रास्ते निकलते हैं
वो शहर इत्तिफ़ाक़ से नहीं मिला