वो मुझे देख कर ख़मोश रहा
और इक शोर मच गया मुझ में
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वो गुल वो ख़्वाब-शार भी नहीं रहा
हाँ ऐ गुबार-ए-आश्ना मैं भी था हम-सफ़र तिरा
मतला ग़ज़ल का ग़ैर ज़रूरी क्या क्यूँ कब का हिस्सा है
फूल है जो किताब में अस्ल है कि ख़्वाब है
इस क़दर मत उदास हो जैसे
अब मसाफ़त में तो आराम नहीं आ सकता
मिरे क़रीब ही महताब देख सकता था
मैं उसे सोचता रहा या'नी
इस अँधेरे में जब कोई भी न था
टूट सकता है छलक सकता है छिन सकता है
तू भी हो मैं भी हूँ इक जगह पे और वक़्त भी हो
वही ख़्वाब है वही बाग़ है वही वक़्त है