ज़ेहन ओ दिल के फ़ासले थे हम जिन्हें सहते रहे
एक ही घर में बहुत से अजनबी रहते रहे
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जिस्म-ओ-जाँ की बस्ती में सिलसिले नहीं मिलते
अगर वो चाँद की बस्ती का रहने वाला था
देख कर इंसान की बेचारगी
कौन पहचानेगा 'ज़र्रीं' मुझ को इतनी भीड़ में
घबरा गए हैं वक़्त की तन्हाइयों से हम
अजीब कर्ब-ए-मुसलसल दिल-ओ-नज़र में रहा
मंज़िलें आईं तो रस्ते खो गए
वो मिल गया तो बिछड़ना पड़ेगा फिर 'ज़र्रीं'
वो मुझ को भूल चुका अब यक़ीन है वर्ना
रूह जिस्मों से बाहर भटकती रही