देख कर इंसान की बेचारगी
शाम से पहले परिंदे सो गए
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ज़ेहन ओ दिल के फ़ासले थे हम जिन्हें सहते रहे
पत्थर के जिस्म मोम के चेहरे धुआँ धुआँ
वो मिल गया तो बिछड़ना पड़ेगा फिर 'ज़र्रीं'
रूह जिस्मों से बाहर भटकती रही
कौन पहचानेगा 'ज़र्रीं' मुझ को इतनी भीड़ में
वो मुझ को भूल चुका अब यक़ीन है वर्ना
अगर वो मिल के बिछड़ने का हौसला रखता
घबरा गए हैं वक़्त की तन्हाइयों से हम
मंज़िलें आईं तो रस्ते खो गए
जिस्म-ओ-जाँ की बस्ती में सिलसिले नहीं मिलते
अगर वो चाँद की बस्ती का रहने वाला था