कौन पहचानेगा 'ज़र्रीं' मुझ को इतनी भीड़ में
मेरे चेहरे से वो अपनी हर निशानी ले गया
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घबरा गए हैं वक़्त की तन्हाइयों से हम
अगर वो मिल के बिछड़ने का हौसला रखता
अगर वो चाँद की बस्ती का रहने वाला था
मंज़िलें आईं तो रस्ते खो गए
जिस्म-ओ-जाँ की बस्ती में सिलसिले नहीं मिलते
बे-सम्त रास्तों पे सदा ले गई मुझे
ख़्वाब आँखों से ज़बाँ से हर कहानी ले गया
रूह जिस्मों से बाहर भटकती रही
पत्थर के जिस्म मोम के चेहरे धुआँ धुआँ
वो मिल गया तो बिछड़ना पड़ेगा फिर 'ज़र्रीं'
ज़ेहन ओ दिल के फ़ासले थे हम जिन्हें सहते रहे